क्या आध्यात्मिकता की और बढ़ ना संन्यास बराबर होता है? मेरा प्रश्न यही है—समाज में यह धारणा क्यों बनी हुई है कि जो आध्यात्मिक हो जाएगा, वह एक दिन संन्यासी बन जाएगा या समाज को छोड़ देगा? धर्म तो समाज का केंद्र होना चाहिए, समाज का धन होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति जैसा ऊर्जावान जीवन तो किसी और का हो ही नहीं सकता। लेकिन अगर समाज ने यह देखा है कि जो लोग धर्म की ओर बढ़ते हैं, वे निष्क्रिय हो जाते हैं, तो फिर इस छवि को कैसे बदला जाए? समाज का यह अनुभव रहा है कि अध्यात्म के नाम पर लोग कहीं जाकर बैठ जाते हैं और कहते हैं—"बस हो गया, जय सियाराम! अब करना ही क्या है? यह जगत तो माया है, मिथ्या है।" जब यह धारणा बन गई है, तो अब इसे बदलने के लिए कुछ लोगों को आगे आना होगा। जो दिखाएँ कि आध्यात्मिक व्यक्ति से अधिक गतिशील जीवन किसी और का नहीं हो सकता। जब यह प्रमाणित होगा, तो धीरे-धीरे समाज की धारणा भी बदलेगी। आप ऋषिकेश की बात करते हैं—यहाँ इतने साधु-संत हैं, लेकिन लोगों को यही छवि दिखती है कि कोई जा रहा होगा, बैठ जाएगा और चिलम फूँकने लगेगा! एक व्यक्ति यहाँ तैयारियों के दौरान आया था, जब ...
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