लोग दिखावा क्यों करते हैं? | Log Dikhawa Kyon Karte Hain?

लोग दिखावा क्यों करते हैं? | Log Dikhawa Kyon Karte Hain?
लोग इतना दिखावा क्यों करते हैं? लोग इतना शो ऑफ क्यों करते हैं? दूसरों को दिखाते हैं, ना? अपने में पूरे नहीं हैं, इसीलिए दूसरों की आँखों से पूरापन चाहते हैं। खुद को इज्जत नहीं दे पाते, इसीलिए दूसरों से इज्जत चाहते हैं। खुद से कभी राजी नहीं हुए, सहमत नहीं हुए, इसीलिए दूसरों से वैलिडेशन चाहत
लोग इतना दिखावा क्यों करते हैं? Log Dikhawa Kyon Karte Hain?

लोग इतना दिखावा क्यों करते हैं? मैं पूछ रहा हूँ, किसको दिखाते हैं? खुद को तो नहीं दिखाते, ना? दूसरों को दिखा रहे हैं। दूसरों की बहुत जरूरत जिंदगी में तभी पड़ जाती है, जब अपने मन का आँगन बिल्कुल सुना न हो, बल्कि मैला हो, कचरे से भरा हो। अपने भीतर कोई शांति नहीं, अपने भीतर कोई पूर्णता नहीं। तो फिर आदमी दूसरों के ऊपर छाने की कोशिश करता है। यह हिंसा है, एक तरह की।  

दूसरों को अपना पैसा दिखाकर, रुतबा दिखाकर, कुछ और दिखाकर प्रभावित करने की, इंप्रेस करने की कोशिश करना, एक तरह की हिंसा है। तुम दूसरे पर रौब डाल रहे हो। तुम दूसरे को Dominate कर रहे हो। बड़े सज्जन तरीके से यह दिखा रहे हो कि हम सभ्य हैं, लेकिन तुम हिंसा कर रहे हो। यह है show off।  

तो show off में पहला आदमी वह आता है, जो कर रहा है। वह कर इसलिए रहा है क्योंकि वह खुद से ही राजी नहीं है। वह खुद को ही मान्यता नहीं दे पा रहा है, खुद को ही स्वीकार नहीं कर पा रहा है। Acceptance (स्वीकृति) स्वयं को दे नहीं पा रहा। उसके लिए सीधा और ईमानदारी का रास्ता यह होता कि उसके भीतर जो कुछ ऐसा है, जो स्वीकार करने लायक नहीं है, उसे ठीक करता। लेकिन वह एक बेईमानी का रास्ता चलता है। वह कहता है कि मैं अपने आप को अगर स्वीकृति नहीं दे पाता, तो वह स्वीकृति धोखे से दूसरों की आँखों में तलाश करूँगा। मैं अपनी नजर में तो बड़ा आदमी हूँ नहीं, तो मैं दूसरों की नजरों में बड़ा आदमी बनूँगा।  

अब तुम्हें तो पहले ही पता है कि तुम बड़े आदमी नहीं हो। तो दूसरा लाख बोल दे, तुम्हारे दिखावे से Impress होकर कि तुम बड़े आदमी हो, फिर भी तुम दिल ही दिल में खुद ही जानते हो कि तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारा दिखावा तुम्हारे काम आएगा नहीं। लेकिन मूर्खता की और क्या पहचान होती है? वह ऐसे ही काम करती जाती है। बार-बार उसके काम आते नहीं हैं।  

तो जो लोग दिखावा कर रहे हैं, समझ लेना कि वे बड़े आंतरिक कष्ट में जी रहे हैं। भीतर से खाली और गंदे हैं। भीतर जो होना चाहिए था, उनके वह है नहीं। अपनी नजरों में गिरे हुए लोग हैं, तो दूसरों की नजरों में उठना चाहते हैं। कुछ अंधे से लोग हैं, जो दूसरों की नजरों से खुद को देखना चाहते हैं।  

लेकिन बात यह है कि अगर तुम अंधे हो, तो तुम दूसरों की नजरों से खुद को देखोगे कैसे? खुद को देखने का तो एक ही तरीका है: अपनी ही नजरें पैदा करो। अपने पास वह दृष्टि हो, जो स्वयं को साफ-साफ देख पाए। उसी को तो फिर सच्चा जीवन कहते हैं। उसी को अध्यात्म कहते हैं। उसी को सत्यनिष्ठा कहते हैं। उसी को ईमानदारी कहते हैं।  

वह हमारे पास होता नहीं है, तो हमारी जिंदगी फिर बीतती है दूसरों के सामने भिखारी बनकर। ये बड़ी अजीब बात है। दिखने में तो ये लगेगा कि ये जो शो ऑफ वाला आदमी है, वो अपना पैसा दिखाकर, अपनी मर्सिडीज दिखाकर, या कुछ और अपना दिखाकर, अपनी ताकत दिखाकर दूसरों पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है। लेकिन वो वास्तव में भिखारी है। उसकी आँखों में याचना है। वो कह रहा है, "प्लीज, प्लीज, प्लीज, सम बडी शो, सम रिस्पेक्ट टू मी। कृपा करके कोई तो कह दो कि मैं बड़ा आदमी हूँ। कृपा करके कोई तो मेरी ओर तारीफ की एक नजर डाल दो।"  

उसको जब देखो, तो ऐसे मत देखो कि कोई आया है तुम पर वर्चस्व जमाने, ऊपर चढ़ बैठने। उसको ऐसे देखो कि तुम्हारे सामने एक भिखारी खड़ा है, जो भीख में तुमसे सम्मान माँग रहा है। एक भिखारी वो होता है, जो सड़क पर आता है, कहता है, "दो रुपये दे दो।" वो आता है, वो तुम्हारी कार के शीशे पर ठक-ठक करके पैसा माँगता है। एक सड़क का भिखारी है, जो तुम्हारी कार खटखटाता है। और एक दूसरा और बड़ा भिखारी है, जो तुम्हें अपनी कार दिखाता है। ये तुमको कार दिखाकर भीख माँग रहा है। यह ज्यादा बड़ा भिखारी है। इसकी गरीबी की कोई इंतहा नहीं।  

वजह समझो: जो सड़क का भिखारी है, उसके बस हाथ खाली हैं। यह जो मर्सिडीज के अंदर बैठा हुआ भिखारी है, इसका दिल खाली है। बहुत बड़ा भिखारी है। इसलिए इसे इतना दिखाना, दिखावा करना पड़ता है। जो तुम्हारी कार का शीशा खटखटाता है, वह भी दिखाता है, ना? तुम्हें क्या दिखाता है? वह तुम्हें अपना पसरा हुआ हाथ दिखाता है। ऐसे ही भिखारिन तो तुम्हें अपना फैला हुआ आँचल दिखाती है, है ना? वह भी कुछ दिखाकर ही भीख माँगते हैं। वैसे ही यह जो बड़ा वाला भिखारी है, यह तुम्हें अपनी शोहरत, अपना पैसा, अपना रुतबा, कई बार अपना ज्ञान, यह सब दिखाकर भीख माँगता है। दोनों ही दिखाकर ही भीख माँग रहे हैं। दोनों का ही आचरण सुना है।  

जो बड़ा भिखारी है, उसके लिए तो बिल्कुल ही कोई उम्मीद नहीं। छोटे वाले को तो फिर भी हो सकता है कि एक दिन इतने सारे पैसे मिल जाएँ भीख में कि उसकी गरीबी दूर हो जाए। लेकिन बड़े वाले भिखारी की विडंबना यह है कि उसे कितना भी सम्मान मिल जाए दूसरों से, उसके भीतर का भिखारीपन, उसकी आंतरिक गरीबी, कभी दूर नहीं होने वाली। बात समझ रहे हो?  

सड़क के भिखारी को किसी दिन ऐसा हो सकता है कि कोई आकर सीधे कहे, "ले, मैंने एक करोड़ तेरे नाम कर दिया। मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ। मेरे पास 100 हज़ार करोड़ हैं। मैंने एक करोड़ तुझे दे दिया। आज बस दिल था मेरा, दे दिया।" इसकी गरीबी दूर हो जाएगी। लेकिन यह जो दिल से गरीब है, जो दूसरों को Impress करने की कोशिश करता रहता है, इसको तुम कितना भी सम्मान दे दो, इसकी गरीबी जस की तस रहेगी। बल्कि बढ़ती जाएगी। क्योंकि इसे जितना तुम सम्मान दोगे, वो सम्मान इसको यही बताएगा कि इतना भी सम्मान काफी नहीं पड़ा। अभी और बहुत बड़ी रिक्त है भीतर।  

बात समझ रहे हो? तो ये तो हुई उस आदमी की बात, जो दूसरों पर चढ़ बैठने की कोशिश कर रहा है, जो दूसरों पर अपनी छाप छोड़ना चाहता है, इंप्रेशन। अब उनकी ओर आओ, जिन्हें Impress करने की कोशिश की जाती है। यह लोग कौन हैं, जिनके सामने दिखावा किया जाता है? दो लोग होते हैं ना, दिखावे वाले पूरे खेल में: एक जो दिखावा कर रहा है, एक जिसको दिखाया जा रहा है। यह आदमी कौन है, जिसे दिखाया जा रहा है? इसको समझो जरा।  

यह वो है, जो दिखावे से प्रभावित हो जाने के लिए तैयार है। तभी तो इसे दिखाया जा रहा है। तुम अगर ऐसे ना होते कि किसी की एक करोड़ की गाड़ी देखकर प्रभावित हो जाते, तो वो तुम्हें अपनी गाड़ी दिखाता क्यों? उसे अच्छी तरह से पता है कि बेटा, हो तो तुम भी उसी के जैसे। तुम दोनों एक ही खेल में हो। एक गेंदबाजी कर रहा है, एक बल्लेबाजी कर रहा है। और गेंदबाज का भी दिन आएगा, बल्ला उसके हाथ में तब जाएगा। वो भी तैयार बैठा है कि एक दिन मैं भी ऐसा हो जाऊँगा कि मैं दूसरों पर अपना हुक्म चलाऊँगा।  

तुम अगर ऐसे हो जाओ कि कोई आए और तुम्हारे सामने अपना रुतबा, अपनी साख, अपनी सत्ता, अपना पैसा, यह सब प्रदर्शित करे और तुम पर कोई फर्क ही ना पड़े, तो फिर वो व्यक्ति तुम्हारे सामने दोबारा प्रदर्शन करने आएगा ही नहीं। वो बार-बार तुम्हारे.. सामने आकर इसीलिए अपनी चीजों का, अपने रुतबे का प्रदर्शन करता है, क्योंकि पिछली बार जब उसने तुम्हें अपना नया phone दिखाया था, तो तुम्हारी आँखों में एक विचित्र भाव उभर आया था। वह भाव उसने पढ़ लिया। इधर तुमने जेब से अपना नया फोन निकाला, दो लाख रुपए का, और उधर देखने वाले की आँखें बिल्कुल वैसे ही फैल गईं। पुतलियाँ जाकर सीधे phone से ही चिपक गईं। जिसने फोन खरीदा था, उसने कहा, "मेरा दो लाख रुपया खर्च करना वसूल हो गया। यह पैसे मैंने इसीलिए खर्च किए थे कि जो मेरा यह फोन देखे, वह बिल्कुल उसी समय मेरे सामने दंडवत हो जाए, लोट जाए, मेरा लोहा मान ले।"  

तुम्हारी आँखों में वो दयनीयता ना आई होती, तुम्हारी आँखों में याचक का भाव ना उभरा होता, तुम्हारे चेहरे पर उस फोन की छाप ना पड़ गई होती, तो व्यक्ति फिर तुम्हारे सामने दोबारा नहीं आता अपने फोन का, या अपनी गाड़ी का, या अपने बंगले का, या अपनी किसी और चीज का प्रदर्शन करने के लिए। तुम इनसे जितना प्रभावित होते रहोगे, ये तुम्हें उतना ही ज्यादा प्रभावित करने की कोशिश करते रहेंगे।  

बात सीधी है: हम क्यों ऐसे हैं कि विद्वता हमें प्रभावित नहीं करती, लेकिन चकाचौंध हमें प्रभावित करती है? पूछो तो अपने आप से। अब चकाचौंध से प्रभावित होने वाले तुम खुद बन गए हो। तुमने अपना निर्माण इस तरह से कर लिया है कि ग्लैमर तुम्हें बहुत इंप्रेस करता है, प्रभावित करता है। ऐसे तुम बन गए हो। अब तुम्हारे सामने कोई ग्लैमर आता है, अपना ना चमकाता है, ग्लैमर और फिर तुम्हें प्रभावित करता है। तो शिकायत कैसी? तुम खुद अपनी मर्जी से चुनाव करके ऐसे बने हो। ना कि कोई भी तुम्हारे सामने चमकदार चीज आती है, चाहे इंसान हो या सोना, तुम तुरंत लालायित हो जाते हो। लार टपकने लगती है। तो फिर लोग तैयार हैं तुम्हारी लार टपकवाने को। क्योंकि जिसकी लार टपक गई किसी चीज को देखकर, वो उस चीज का गुलाम हो गया। और बहुत तैयार है तुम्हें गुलाम बनाने को। गुलाम बनाने में तो फायदा ही फायदा है।  

तुम्हारी जिंदगी में सच्चाई की कीमत नहीं। तुम्हारी जिंदगी में सरलता की कीमत नहीं। तुम्हारी जिंदगी में न्याय की कीमत नहीं। तुम्हारी जिंदगी में प्रेम की कीमत नहीं। प्रेम की जगह तुम जिस्म को मूल्य देते हो। सच्चाई की जगह तुम सत्ता को मूल्य देते हो। सरलता की जगह तुम जटिलता को मूल्य देते हो। सत्य की जगह तुम ऊपरी चकाचौंध को मूल्य देते हो। यह सब तुमने ही किया है ना, अपने साथ? तो अब क्यों कह रहे हो कि लोग आते हैं और जब भी मैं देखता हूँ कि कोई चकाचौंध का बड़ा आयोजन करके दूसरों पर छा रहा है, तो एक बात मन में आती है कि "ये लोग हैं, दे आर गेटिंग व्हाट दे डिजर्व।"  

ये जो लोग हैं, एक आदमी है जो मंच पर चढ़ा हुआ है, और मंच पर उसने भीड़ को इंप्रेस करने का सारा इंतजाम कर रखा है। वह मंच बनाया गया है इस तरह कि उस मंच को देखो, उस मंच पर जो आदमी है उसको देखो, उस आदमी के कपड़ों को देखो। पूरी व्यवस्था इस तरह से की गई है कि जो देखे, वह बिल्कुल हतप्रभ रह जाए, भौचक्का हो जाए, "अरे बाप रे बाप, कितना बड़ा आदमी है, कितना प्रभावशाली, कितना पैसे वाला!" और फिर सामने बहुत बड़ी भीड़ खड़ी है, जो यह सब देख रही है, ऐसे एकदम करबद्ध हो गई है, "अरे अरेरेरे, कितने बड़े साहब हैं! इतना बड़ा देखो मंच है, इनके पास और ये और वो और क्या पैसा दिखा रहे हैं!"  

इस भीड़ के ऊपर मुझे दया आती है, लेकिन दया से ज्यादा मुझे यह दिखाई देता है कि इनके साथ यह होना ही था। "they deserve it" वो जो इंसान है जो मंच पर चढ़कर तुमको बेवकूफ बना रहा है, वो तुम्हें बेवकूफ बना ही इसीलिए रहा है क्योंकि तुम बेवकूफ बनने को तैयार खड़े हो। और वास्तव में अगर तुम्हें वो ना बेवकूफ बनाए, तो कोई और आएगा बेवकूफ बनाने के लिए। तुमने खुद बुद्धिमानी का रास्ता छोड़ रखा है। तुमने खुद यह निश्चित कर रखा है कि कोई तो तुमको बुद्धू बनाए ही बनाए। एक नहीं बनाएगा, तो दूसरा बनाएगा। दूर के लोग नहीं बनाएंगे, तो पास के लोग बनाएंगे। और अगर कोई नहीं मिला तुमको मूर्ख बनाने को, तो तुम स्वयं को मूर्ख बनाओगे।  

हम ये आजमा के देखना: जो लोग तुम्हें बहुत Impress करना चाहते हैं, तुम उनसे Impress होना छोड़ दो। तुम पाओगे, वो तुमसे खुद ही दूर हो गए। क्योंकि उनका और तुम्हारा Relationship ही शिकारी और शिकार का था। तुम शिकार होना छोड़ दो, शिकारी तुम्हारे करीब आना छोड़ देगा।

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