जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं आऊंगा" – गीता का गूढ़ संदेश

"जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं आऊंगा" – गीता का गूढ़ संदेश

भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा:

"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।"

अर्थात, जब-जब धर्म की हानि होगी और अधर्म बढ़ेगा, तब-तब मैं धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होऊँगा।

लेकिन यह कथन केवल बाहरी रूप से देखने योग्य नहीं है। इसे समझने के लिए हमें गहराई में जाना होगा। यह संवाद केवल युद्धक्षेत्र में अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच का वार्तालाप नहीं है, बल्कि यह मन और आत्मा के बीच का संवाद है।

अध्यात्म – व्यक्तियों की नहीं, आत्मा की बात

अध्यात्म बाहरी घटनाओं या व्यक्तियों के बारे में नहीं होता। यह आत्मा और मन की यात्रा से जुड़ा होता है। संसार में होने वाली घटनाएँ, लोगों की कथाएँ या नाटक अध्यात्म का विषय नहीं हैं।

जब कृष्ण कहते हैं "जब-जब धर्म की हानि होगी, तब-तब मैं आऊंगा," तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई अवतार आकर समस्या हल करेगा। इसका गहरा अर्थ यह है कि जब-जब कोई व्यक्ति सत्य (धर्म) से भटकता है और अधर्म (असत्य) की ओर बढ़ता है, तब-तब उसके भीतर ही कृष्ण-तत्व (सत्य और प्रेम) पुनः जागृत होने का प्रयास करता है।

मन, आदतें और धर्म

हर व्यक्ति के भीतर दो शक्तियाँ काम करती हैं:

1. प्रेम और सत्य की शक्ति – जो उसे धर्म की ओर ले जाती है।


2. आदतों और संस्कारों की शक्ति – जो उसे पुराने, गलत रास्तों पर बाँधकर रखती है।



जब कोई व्यक्ति अपने पुराने संस्कारों और बुरी आदतों में फँसा होता है, तब वह अधर्म की ओर बढ़ता है। लेकिन जैसे ही उसके भीतर सत्य की चाह जागती है, वह धर्म की ओर चल पड़ता है।

अर्जुन कौन है?

जब व्यक्ति सत्य और प्रेम की ओर बढ़ता है, तो वह अर्जुन बन जाता है।

जब वह सत्य में स्थित हो जाता है, तब वह स्वयं कृष्ण बन जाता है।

जब वह अपने पुराने संस्कारों और लोभ में फँस जाता है, तब वह दुर्योधन बन जाता है।


धर्म और अधर्म का द्वंद्व

जब कोई व्यक्ति सत्य की ओर बढ़ता है, तो उसके भीतर एक आंतरिक संघर्ष उत्पन्न होता है। उसके पुराने संस्कार उसे वापस खींचते हैं, लेकिन सत्य की ओर जाने की तड़प उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

यही द्वंद्व गीता में दर्शाया गया है। कृष्ण कहते हैं कि जब अधर्म बढ़ेगा, जब व्यक्ति सत्य से दूर होगा, तब कृष्ण-तत्व (सत्य, प्रेम, ज्ञान) उसके भीतर पुनः जागृत होने का प्रयास करेगा।

सत्य की ओर वापसी – जीवन का स्वभाव

भारत में कालचक्र की अवधारणा बताती है कि जब अधर्म अपनी चरम सीमा पर पहुँचता है, तब धर्म की पुनः स्थापना अपने आप होती है।

जब कोई व्यक्ति बहुत अधिक झूठ, छल और अन्याय से भर जाता है, तो अंततः वह सत्य की ओर लौटने के लिए मजबूर हो जाता है।

"सत्यमेव जयते" (सत्य की ही जीत होती है) इसलिए कहा गया है क्योंकि सत्य स्वभावतः विजयी होता है।

यह कोई बाहरी घटना नहीं, बल्कि आंतरिक जागृति की प्रक्रिया है।


अवतार का सही अर्थ

जब कृष्ण कहते हैं "मैं आऊंगा," तो इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई नया अवतार आएगा। इसका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति अधर्म से थक जाता है, तब उसके भीतर सत्य की ज्वाला पुनः जल उठती है।

यह परिवर्तन समाज में भी होता है, जब अधर्म अधिक बढ़ जाता है, तो समाज में सुधार की लहर उठती है।

यह परिवर्तन व्यक्तिगत स्तर पर भी होता है, जब व्यक्ति अपने भीतर की सच्चाई को पहचानता है और स्वयं को बदलता है।


निष्कर्ष

गीता का संदेश केवल ऐतिहासिक कथा नहीं है, बल्कि यह हर व्यक्ति के मन के भीतर चलने वाले संघर्ष का प्रतीक है।

जब मन सत्य से दूर होगा, तब अधर्म बढ़ेगा।

जब सत्य की चाह बढ़ेगी, तब धर्म जागृत होगा।

और जब कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से सत्य को स्वीकार कर लेता है, तब वह स्वयं कृष्ण बन जाता है।


यही कृष्ण का वास्तविक अवतार है – हर व्यक्ति के भीतर सत्य और प्रेम की पुनः स्थापना।


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