यह हमारी जड़ता और हमारे अहंकार का प्रमाण है

ओशो ने दुनिया भर के विषयों पर बोला, तुम्हें उनकी बातों में सिर्फ सेक्स को ही चुनने में क्यों रुचि है? अष्टावक्र संहिता पर ओशो ने इतना मोटा साहित्य खड़ा कर दिया है, गीता पर वांग में है और पतंजलि योग सूत्र पर भी है। दुनिया का कोई उत्कृष्ट ग्रंथ होगा जिस पर ओशो ने नहीं बोला हो? बल्कि ऐसे-ऐसे ग्रंथों पर बोले हैं, जिन पर ओशो से पहले किसी ने नहीं बोला। विज्ञान भैरव तंत्र भी अनजाने से ही थे, ओशो ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया, पूरी दुनिया में ले गए, लोग जानने लग गए। तुम्हें वह सब क्यों नहीं पता? मीरा बाई पर भी बोले हैं, उसकी तस्वीर क्यों नहीं डालते तुम फेसबुक पर? सहजोबाई पर बोले हैं, दादू दयाल पर बोले हैं, वह सब क्यों नहीं डालते तुम फेसबुक पर? क्यों नहीं डालते तुम? यही क्यों डालते हो? क्योंकि तुम घटिया आदमी हो।

तुम ओशो का नाम लेकर अपनी पुरानी घटिया वासनाएं पूरी कर रहे हो। बल्कि तुमने अपनी वासनाओं को सम्मान देने के लिए एक नाम ढूंढ लिया है—ओशो। भाई, कोई व्यक्ति जब जीवन के हर पहलू पर बोलता है, तो सेक्स पर भी बोलेगा ना? क्योंकि उसे जीवन की समग्रता को संबोधित करना है। जब वह जन्म पर बोल रहा है, मृत्यु पर बोल रहा है, विक्षेप पर बोल रहा है, समाधि पर बोल रहा है, तो वह सेक्स पर भी बोलेगा, क्योंकि उसने जीवन के हर मुद्दे को छुआ है। तो उसने सेक्स को भी छू दिया।

तुम मुझे यह बताओ कि उनकी सारी किताबों को हटाकर तुम्हें उनके सेक्स संबंधी वीडियो ही क्यों दिखाई देते हैं? और जो उनके कुछ सेक्स संबंधी लेख हैं या वक्तव्य हैं, वही क्यों याद हैं? बाकी सबकी बात कौन करेगा? मुझे बताना, सहजोबाई पर जो कुछ बोला है ओशो ने, वह तुमने कितना पढ़ा? बोलो! या लाजू पर जो बोला है? या च्वांग पर जो बोला है? या सूफियों पर जो बोला है? बताओ! उसकी तुम चर्चा क्यों नहीं करते कभी? क्योंकि नीच आदमी हो, और ओशो के नाम पर जो कुछ चल रहा है अभी, वह 99% नीचता ही है।

हर महापुरुष का दुर्भाग्य यही होता है। वह चला जाता है, उसके पीछे उसकी बातें कैसे-कैसे लोगों के हाथों में पड़ जाती हैं। जब तक वह जिंदा था, तब तक तो फिर भी ठीक था। कम से कम बेवकूफी के विरुद्ध कुछ बोल सकता था। एक बार वह चला गया, फिर तो मौज ही मौज! उसका नाम लेकर जो मक्कारी करनी हो, जो अय्याशी करनी हो, जो बदतमीजी करनी हो, सब कर सकते हो। ओशो एक उदाहरण हैं, उनके अलावा भी हजारों लोगों के साथ यही हुआ है।

आदम जात बड़ी घटिया जात है। हम किसी को नहीं बख्शते! गुरु तो चलो फिर भी छोटी चीज हुए, हम अवतारों-पैगंबरों को नहीं बख्शते! हम उनको भी अपनी कठपुतली बना लेते हैं। हम कहते हैं—वो भी वही बोलेंगे, जो मैं चाहता हूँ

दुनिया का जो सबसे छिछोरा आदमी भी होगा, बिल्कुल नाकाबंदी होता है, कुछ कर नहीं सकता, तो जहां कुछ हो रहा हो, वहां मत दो। माहिर हैं हम इसमें! जब तक राह बताने वाला जिंदा है, सीधे-सीधे उसके सामने बैठ लीजिए। जब वह नहीं है, तब उसकी लिखी बात उपलब्ध हो, साहित्य हो या रिकॉर्डिंग हो, वह देख लीजिए। यह बाकी सब अंडू-पंडू के चक्कर में मत पड़िए।

गुरु नानक साहब गए थे अरब। तो एक दिन वो लेट गए, काबा के पत्थर की ओर उन्होंने पांव कर लिए। तो लोगों ने टोका, बोले—आप तो संत हैं, विद्वान हैं, ये आप क्या कर रहे हैं? आप काबे की तरफ पांव करके? तो कहानी है, पर कहानी का मर्म समझिए। उन्होंने कहा, "ठीक है, जिधर को काबा नहीं है, मैं उधर को पांव कर लेता हूँ।" तो उन्होंने कहते हैं, अपने पांव मोड़े, और कहानी बताती है कि काबा का पत्थर भी उसी के साथ-साथ मुड़ गया।

यह कहानी किसके चरित्र के साथ शोभा देती है? गुरु नानक साहब के साथ। उन्हें हक है यह करने का, कि वे कहें कि मैं किधर को भी पांव करके सो जाऊंगा। आम आदमी को यह हक नहीं है कहने का—कि इधर को क्यों ना करें, और उधर को क्यों ना करें? उधर को वहाँ ख्याल रखना पड़ेगा ना! जो ऐसा हो गया हो कि उसके लिए सगुण-निर्गुण सब एक हो गए, उसे अब सगुण में भेद और विवेक की कोई जरूरत नहीं। वास्तव में विवेक भी तभी तक चाहिए जब तक आप पूरी तरह मुक्त नहीं हुए। विवेक का अर्थ होता है भेद। और जब तक आप पूरी तरह मुक्त नहीं हुए, तब तक आपको भेद करना चाहिए।

किस दीवार पर गुरु की तस्वीर नहीं है और किस दीवार पर है—इसमें आपको अंतर करना होगा। आप गुरु नानक थोड़े ही हो, भाई! अभी यह बात किसी गुरु नानक को ही शोभा देती है कि वह काबा की ओर भी पांव करके सो जाए। उनसे नीचे के किसी आदमी ने यह हरकत करी, तो यह बदतमीजी है और इसकी सजा मिलनी चाहिए।

इसी तरीके से भगवान बुद्ध के जीवन के साथ जुड़ी हुई कथा है। दोनों कथाएँ ही बता रहा हूँ, पर मर्म समझिए।

एक दफे ध्यान में बैठे हुए थे। तो कुछ चोर थे, वो एक औरत को ले आए थे जंगल में—जाने पैसे देख लाए हों, जाने जबरदस्ती उठा लाए हों—जो भी कराओ। वह किसी तरह उनसे छूट-छाट के भागी और वह भागकर जहां बुद्ध बैठे थे, ध्यान कर रहे थे, उनके सामने से निकली। और वह भी फटेहाल, आधी नग्न ही वहाँ से गुजर गई, अपना भाग गई।

पीछे-पीछे यह सब लोग आए। तो कहते हैं कि इन्होंने पूछा बुद्ध से—"अभी यहाँ से कोई निकली है, औरत?"

बुद्ध चुप रहे। उन्होंने जोर मारा, धमकाया, जो भी करा। बोले—"दिखा कैसे नहीं तुमको? एक तो स्त्री थी, वो भी निर्वस्त्र! ऐसा कैसे हुआ कि तुमने ध्यान नहीं दिया?"

बुद्ध बोले—"हम अब उस दशा में आ गए हैं, जहाँ हमको स्त्री-पुरुष वगैरह बहुत समझ में आता नहीं है। और यह भी हमें बहुत दिखाई नहीं देता कि कपड़े किसने कितने पहन रखे हैं।"

यह बात भी शोभा देती है तो किसी बुद्ध को शोभा देती है कि नंगी औरत भी सामने हो तो क्या हो गया! पदार्थ ही तो है, देह है।

जो लोग नग्नता की पैरवी कर रहे हैं, उनसे पूछिए—"ठीक है, बिल्कुल सही, तुम्हारी बात सही है। शरीर ही तो है, क्या हो गया? शरीर में कौन सा ज़हर है? शरीर में कौन सा अपराध है?"

लेकिन क्या तुम ऐसे लोग हो, जिन्हें यह कहने का हक है? यह बात कोई ओशो कहे, तो ठीक है। तुम क्यों कह रहे हो, भाई? तुमने ओशो की ऊँचाई हासिल कर ली क्या?

तुम कौन होते हो, फेसबुक पर नंगी तस्वीरें चिपकाने वाले? कोई भी काम सही या गलत नहीं होता। जो काम किसी बुद्ध के लिए, किसी नानक के लिए सही है, वह आम आदमी के लिए गलत है। दोनों के लिए मापदंड एक तो नहीं हो सकते, ना?

लेकिन हम बड़े अहंकारी लोग हैं। हम कहते हैं—उन्होंने करा, तो हम भी करेंगे!

या फिर हम यह कह देते हैं कि हम जैसे चलते हैं, जैसे रहते हैं, जैसे करते हैं—बुद्धों को भी वैसे ही होना चाहिए! और बुद्ध अगर वैसे नहीं हैं, जैसे हम थे, तो हम बुद्ध का भी या तो अपमान कर देंगे या फिर बुद्ध के जीवन से वे घटनाएँ ही मिटा देंगे, जहाँ वे हमारे जैसे नहीं थे।

यह हमारी जड़ता और हमारे अहंकार का प्रमाण है।

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