आध्यात्मिकता और संन्यास: क्या समाज को त्यागना आवश्यक है?

क्या आध्यात्मिकता की और बढ़ ना संन्यास बराबर होता है? 
मेरा प्रश्न यही है—समाज में यह धारणा क्यों बनी हुई है कि जो आध्यात्मिक हो जाएगा, वह एक दिन संन्यासी बन जाएगा या समाज को छोड़ देगा? धर्म तो समाज का केंद्र होना चाहिए, समाज का धन होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति जैसा ऊर्जावान जीवन तो किसी और का हो ही नहीं सकता। लेकिन अगर समाज ने यह देखा है कि जो लोग धर्म की ओर बढ़ते हैं, वे निष्क्रिय हो जाते हैं, तो फिर इस छवि को कैसे बदला जाए?

समाज का यह अनुभव रहा है कि अध्यात्म के नाम पर लोग कहीं जाकर बैठ जाते हैं और कहते हैं—"बस हो गया, जय सियाराम! अब करना ही क्या है? यह जगत तो माया है, मिथ्या है।" जब यह धारणा बन गई है, तो अब इसे बदलने के लिए कुछ लोगों को आगे आना होगा। जो दिखाएँ कि आध्यात्मिक व्यक्ति से अधिक गतिशील जीवन किसी और का नहीं हो सकता। जब यह प्रमाणित होगा, तो धीरे-धीरे समाज की धारणा भी बदलेगी।

आप ऋषिकेश की बात करते हैं—यहाँ इतने साधु-संत हैं, लेकिन लोगों को यही छवि दिखती है कि कोई जा रहा होगा, बैठ जाएगा और चिलम फूँकने लगेगा! एक व्यक्ति यहाँ तैयारियों के दौरान आया था, जब चारों ओर केवल भगवा रंग (गेरुआ) दिखाई दे रहा था। उसने पूछा—"माल है क्या?" यानी अब गेरुआ रंग का मतलब ही 'माल' (नशा) हो गया है!

यह सब तैयारियाँ कई दिनों से चल रही थीं। लोग उत्सुक थे, आते-जाते झाँकते थे कि "क्या होने जा रहा है?" फिर जब उन्हें बताया गया कि यहाँ भजन-कीर्तन होगा, संगीत सुना जाएगा, और कुछ सार्थक चर्चा होगी, तो उन्हें यकीन नहीं हुआ। वे सोचते हैं—"अरे, यहाँ कौन कुछ करने को कहेगा? जो कर रहा है, वह भगवान कर रहा है, हम कौन होते हैं करने वाले?"

अगर हम कुछ करने लगें, तो लोग कहेंगे—"यह तो कर्ता-भाव हो गया, अहंकार हो गया!" करने का काम भगवान का है, हम बस "दम मारो दम" कहते हुए बैठे रहें!

लेकिन जब कोई व्यक्ति अवार्ड लेने जाता है और उससे पूछा जाता है—"आपकी सफलता के पीछे कौन है?" तो वह गर्व से कहता है—"मेरी गर्लफ्रेंड!" वहाँ तो उसे श्रेय देने में संकोच नहीं होता। लेकिन जब धर्म, वेदांत, उपनिषदों के कारण सफलता मिलती है, तो क्या हम उसे श्रेय नहीं देंगे?

ढिंढोरा पीटो! बताओ कि आज मेरा व्यापार चमक रहा है क्योंकि मैंने वेदांत पढ़ा है। बताओ कि मेरा नशा छूट गया, मेरी दुर्बलताएँ मिट गईं, क्योंकि मैंने उपनिषदों का अध्ययन किया है। प्रचार करो! क्योंकि माया हर तरीके से अपना प्रचार करती है। तो क्या हमें सच के मुँह पर मफलर बाँध देना चाहिए?

यहाँ कोई सज्जन थे, जिन्होंने ऋषिकेश की एक फोटो अपने फेसबुक पर डाली। लेकिन फोटो थी एक कैफे की, जहाँ उन्होंने डिनर किया था। तुम एक कैफे का प्रचार कर सकते हो, लेकिन उस शिविर का नहीं, जिसके लिए आए हो?

अध्यात्म का नाम पहले ही बहुत बदनाम हो चुका है। इसे अच्छे प्रचारकों की जरूरत है। खोखले, झूठे प्रचार नहीं, सच्चे प्रचार की जरूरत है। बताओ सबको! ताकि अगली बार कोई न कहे—"शिविर में जा रहे हो? जोगी बनने वाले हो क्या?" बल्कि लोग कहें—"अच्छा, शिविर में जा रहे हो! वहाँ से तो बहुत लाभ होता है।"

अभी तो विकृत नमूने ही दिखाई देते हैं, इसलिए लोग घबराते हैं, कहते हैं—"काहे को इधर जाना?" मैं बिना किसी मिलावट के उदाहरण दे रहा हूँ।

कल रात जब इस शिविर की सजावट हुई, तो इस पर बड़ी बहस छिड़ी। लोग आते गए, और जब उनसे पूछा गया—"यह सब कैसा लग रहा है?" तो सबने यही कहा—"अच्छा नहीं लग रहा।"

मैं पूछता गया, क्योंकि मुझे पता था कि क्यों अच्छा नहीं लग रहा। क्योंकि हमारे मन ने गेरुआ (भगवा) रंग का संबंध अकर्मण्यता से जोड़ लिया है। इसे धर्मांधता, कट्टरता, और निचले स्तर के मूल्यों से जोड़ लिया गया है। इसलिए जब चारों ओर सिर्फ गेरुआ था, तो लोगों को कुछ जम नहीं रहा था।

फिर कहा गया—"कुछ और रंग लगाओ। पर्पल लगाओ, बेबी पिंक लगाओ!" और जब गेरुए के ऊपर बेबी पिंक लगाया, तो लोगों को अच्छा लगने लगा।

लोगों का दोष नहीं है, दोष उन लोगों का है जिन्होंने गेरुआ धारण किया लेकिन उसका सही सम्मान नहीं रखा। अब गेरुआ को ही अपना सम्मान वापस पाना होगा।

यह कोई हल्का रंग नहीं हैयह ऊँचाई का रंग है। लेकिन इसका नाम खराब हो चुका है, इसे फिर से गौरव दिलाना होगा। यह हार का रंग नहीं है, बुढ़ापे का रंग नहीं है। यह आग का रंग है, यह जीत का रंग है!

यह ढलते हुए सूरज का रंग नहीं, उगते हुए सूरज का रंग है। न बचपन का, न बुढ़ापे का—यह जवानी का रंग है! इसे इसकी प्रतिष्ठा वापस चाहिए।

मैं प्रतीक्षा करूँगा उस दिन की, जब आप इस शिविर में प्रवेश करें और आपको गौरव की अनुभूति हो। जब गेरुए को वायलेट, पर्पल, बेबी पिंक की जरूरत न पड़े। और उस दिन कोई आपसे यह नहीं पूछेगा—"अद्वैत महोत्सव में क्यों जा रहे हो?"

जैसे पुराने समय में लोग तीर्थ करके लौटते थे और सम्मान के पात्र बनते थे, वैसे ही जब आप इन शिविरों से वापस जाओगे, तो लोग घेरकर पूछेंगे—"बताओ, क्या सीखा, क्या किया, क्या लेकर आए हो?"

किताबें दिखाओ! "अच्छा, इतनी किताबें लाए हो? एक हमारे लिए भी, एक उनके लिए भी, पूरे परिवार में बाँटो!" जैसे पहले केदारनाथ से लौटने वाले प्रसाद बाँटते थे, वैसे ही जब यहाँ से लौटो, तो ज्ञान बाँटो।

फिर लोग सर माथे पर रखेंगे और कहेंगे—"अरे, ललन भैया का ब्रांड बदल गया! शिविर करके आए हैं, तो घर में इज्जत बढ़ गई!"

यह बदलाव श्रम माँगता है, और हम यह श्रम करेंगे।

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